Friday, September 17, 2010

ग़ज़ल
कमरे में धुंधली लाल रोशनी के बीच, कुछ टूटे कांच के टुकड़ों थे | मेरे अक्स में दरारें तो कब से थीं, पर आज जो हुआ सहन नहीं कर पाया वो | क्या हुआ था, इससे क्या फर्क पड़ता है किसीको? लाल रोशनी में खो जाने की कोशिश कर रहा था मैं | तब कांच के टुकड़ों पर पानी की बूँद सी आवाज़ में, एक हमनफ़स ने कहा | खुद की ख़ुशी,खुद ही के हाथ में होती है, अपने दर्द को ख़ुशी का नाम दे दो तो वो ख़ुशी बन जाएगा | मैंने अपने अक्स को समेटना शुरू किया और हर बार की तरह, ग़ज़ल ने मेरा साथ दिया |