Thursday, July 26, 2012

तनहा

उफ़क के पार भी उलफ़त न मिली 
लौटा तो दयार भी सूना निकला 

मैंने माना जिसे मेरा खुदा था 
वो महज़ ज़र का पुतला निकला  

जिस पर उम्र भर लिखता रहा  
वो सफाह-ए-दिल भी कोरा निकला 

मेरी आखरी ग़ज़ल का जुमला 
मेरी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा निकला 

तफ़री

चल आजा ज़रा बीते सालों में कर के आते हैं तफरी
चल लेकर आते हैं कश पहली सिग्रेट का, जो आधी-आधी पी थी हमने, 
आ झाँक कर आते हैं कॉलेज की पहली क्लास में, 
ज़रा फिर क्लास से भाग कर चलते हैं पीछे वाली टपरी पर,
शायद कोई पुरानी हंसी फिर गिर पड़े सर पर, 
शायद गिरा पड़ा हो कोई ठहाका ज़मीन पर
शायद पेड़ के पीछे से निकल कर डरा दे हम ही हमें
चल ज़रा टूटे दिल को हौसला दे आयें, 
जो गुमसुम हो उसे बहला आयें, 
चल कुछ लम्हों के लिए आज को कह दें अलविदा
 चल 
आजा ज़रा बीते सालों में कर के आते हैं तफरी ........

शुक्रिया, जगजीत साहिब


सूखे पत्तों की तरह चल दिया करते थे हवा के साथ 
बिन बताये आते थे और चले जाते थे
खुला दरवाज़ा जब हवा की दस्तक से बज उठता, तब टूटता था तुम्हारी आवाज़ का ख़ुमार   ...
सिग्रेट का हर कश एक नयी तस्वीर बन जाता था 
शायरों के अलफ़ाज़ तुम्हारी आवाज़ में ज्यादा मीठे लगते थे 
आंसू मेरे थे पर... सुनते तुम्हारी थे 
तुम गाते थे, तो बिन बताए चले आते थे 
कहने को तुम्हारी आवाज़ के साथ कईं रातें काटी हैं मैंने 
पर अब समझा वह कटी नहीं थीं.. 
मेरे ही अन्दर थी कहीं, आज फिर लौट आयीं हैं 
और इस बार न जाने के लिए आयीं हैं ....