Saturday, October 6, 2012

जुर्रत



जुर्रत 

आज नशे में एक ख्वाब की जुर्रत कर ली 
तेरे साथ अपने साथ की जुर्रत कर ली 

तेरे मुन्तज़िर तो हम हमेशा से हैं 
तेरी और नज़र उठाने की जुर्रत कर ली 

महफिलों में अक्सर देखा है तुझे 
हमने भी महफिलों में जाने की आदत कर ली 

दरीचे में दो पल के तेरे मंज़र के लिए 
ज़िन्दगी तेरे सामने वाले घर में बसर कर ली 

उबलो


उबलो 
हाथ फैलाना बंद करो, हाथ उठाओ 
तमाशा देख कर ताली मत बजाओ
सच की रोशनी से आखों को चून्धियाने दो 
अँधेरे में अंधे मत मरो

उबलो  
चीखों को संगीत की तरह मत सुनो 
सपनों को झूठ के धागों से मत बुनो 
हाथ की लकीरों के इशारों पर  मत चलो 
उड़ना चाहते हो तो गिरने से मत डरो

उबलो 
हंस कर अपनी हंसी मत उड़वाओ
खूटे की रस्सी की लम्बाई मत बड़ाओ
आज़ादी के मुखोटे को उतारो 
अपनी गुलामी का जश्न मत बनाओ 

Thursday, July 26, 2012

तनहा

उफ़क के पार भी उलफ़त न मिली 
लौटा तो दयार भी सूना निकला 

मैंने माना जिसे मेरा खुदा था 
वो महज़ ज़र का पुतला निकला  

जिस पर उम्र भर लिखता रहा  
वो सफाह-ए-दिल भी कोरा निकला 

मेरी आखरी ग़ज़ल का जुमला 
मेरी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा निकला 

तफ़री

चल आजा ज़रा बीते सालों में कर के आते हैं तफरी
चल लेकर आते हैं कश पहली सिग्रेट का, जो आधी-आधी पी थी हमने, 
आ झाँक कर आते हैं कॉलेज की पहली क्लास में, 
ज़रा फिर क्लास से भाग कर चलते हैं पीछे वाली टपरी पर,
शायद कोई पुरानी हंसी फिर गिर पड़े सर पर, 
शायद गिरा पड़ा हो कोई ठहाका ज़मीन पर
शायद पेड़ के पीछे से निकल कर डरा दे हम ही हमें
चल ज़रा टूटे दिल को हौसला दे आयें, 
जो गुमसुम हो उसे बहला आयें, 
चल कुछ लम्हों के लिए आज को कह दें अलविदा
 चल 
आजा ज़रा बीते सालों में कर के आते हैं तफरी ........

शुक्रिया, जगजीत साहिब


सूखे पत्तों की तरह चल दिया करते थे हवा के साथ 
बिन बताये आते थे और चले जाते थे
खुला दरवाज़ा जब हवा की दस्तक से बज उठता, तब टूटता था तुम्हारी आवाज़ का ख़ुमार   ...
सिग्रेट का हर कश एक नयी तस्वीर बन जाता था 
शायरों के अलफ़ाज़ तुम्हारी आवाज़ में ज्यादा मीठे लगते थे 
आंसू मेरे थे पर... सुनते तुम्हारी थे 
तुम गाते थे, तो बिन बताए चले आते थे 
कहने को तुम्हारी आवाज़ के साथ कईं रातें काटी हैं मैंने 
पर अब समझा वह कटी नहीं थीं.. 
मेरे ही अन्दर थी कहीं, आज फिर लौट आयीं हैं 
और इस बार न जाने के लिए आयीं हैं ....

Monday, March 5, 2012

दुआ

मुसाविर हो तुम
तुम्हारी तसवीरें महकती हैं
रंग कितने हैं तुम्हारे, महक भी कईं हैं
पुराने अलफ़ाज़ हैं, पर बात नयी है..
अल्लाह करे
कलम में दरीया-ए- स्याही, दिल में क़रार रहे
क़यामत तक इस गुलज़ार में बहार रहे

Friday, March 2, 2012

पापा

पापा
पहली बार साइकिल सिखाते हुए बिन बताये, धीरे से छोड़ दी थी साइकिल
पर भाग रहे थे मेरे पीछे
और मुझे लगा आपने पकड़ रखा है मेरी साइकिल को, में गिरूंगा नहीं
और में बिना डरे आगे बढता गया
अभी भी आप हो मेरे पीछे
मुझे पता है, आप हमेशा रहोगे मेरे साथ
गिरने नहीं दोगे मुझे.....