तुम कलमधार करते प्रहार
शब्दों से अपने अपरम्पार
इश्वर करे तुम्हारी जय हो
चलते रहो तुम्हे न कोई भय हो
जय हो तुम्हारी जय हो
तुम में दीवाकर सी प्रबल ज्वाला
तुम तुच्छ मानव की पाठशाला
निश्छल जल प्रपात की तीव्र धार
तुम अग्नि दूत , तुम प्रबल ज्वार
लिख दो भविष्य कर दो निहाल
जग करे नृत्य और तुम दो ताल
- प्रांजल
Wednesday, October 20, 2010
Friday, September 17, 2010
ग़ज़ल
कमरे में धुंधली लाल रोशनी के बीच, कुछ टूटे कांच के टुकड़ों थे | मेरे अक्स में दरारें तो कब से थीं, पर आज जो हुआ सहन नहीं कर पाया वो | क्या हुआ था, इससे क्या फर्क पड़ता है किसीको? लाल रोशनी में खो जाने की कोशिश कर रहा था मैं | तब कांच के टुकड़ों पर पानी की बूँद सी आवाज़ में, एक हमनफ़स ने कहा | खुद की ख़ुशी,खुद ही के हाथ में होती है, अपने दर्द को ख़ुशी का नाम दे दो तो वो ख़ुशी बन जाएगा | मैंने अपने अक्स को समेटना शुरू किया और हर बार की तरह, ग़ज़ल ने मेरा साथ दिया |
कमरे में धुंधली लाल रोशनी के बीच, कुछ टूटे कांच के टुकड़ों थे | मेरे अक्स में दरारें तो कब से थीं, पर आज जो हुआ सहन नहीं कर पाया वो | क्या हुआ था, इससे क्या फर्क पड़ता है किसीको? लाल रोशनी में खो जाने की कोशिश कर रहा था मैं | तब कांच के टुकड़ों पर पानी की बूँद सी आवाज़ में, एक हमनफ़स ने कहा | खुद की ख़ुशी,खुद ही के हाथ में होती है, अपने दर्द को ख़ुशी का नाम दे दो तो वो ख़ुशी बन जाएगा | मैंने अपने अक्स को समेटना शुरू किया और हर बार की तरह, ग़ज़ल ने मेरा साथ दिया |
Wednesday, August 4, 2010
Friday, July 30, 2010
घर
सुबह तड़के, स्टेशन पर, रैंगति ट्रेन के सायरन ने, फिर मेरा सपना तोड़ दिया. ट्रेन की खिड़की के साथ भागती मेरी बहन ने पुछा " सब रख लिया न ? कुछ छूट तो नहीं गया ? मैंने कुछ जवाब नहीं दिया, पर अन्दर से किसी ने कहा " छूट तो गया, एक बार फिर से, घर ."
शायद
अक्सर उसकी हंसी से रोशनी हो जाती थी, अब अँधेरा सा रहता है.
मैंने जो नाम दिया था, बहुत पसंद था उसे.
उसके जाने के बाद एहसास हुआ, मैंने उसे कभी उस नाम से पुकारा नहीं.
क्या पता शायद लौट आती वो, क्या पता शायद नहीं जाती वो, क्या पता ?
आदत
सुबह तड़के, स्टेशन पर, रैंगति ट्रेन के सायरन ने, फिर मेरा सपना तोड़ दिया. ट्रेन की खिड़की के साथ भागती मेरी बहन ने पुछा " सब रख लिया न ? कुछ छूट तो नहीं गया ? मैंने कुछ जवाब नहीं दिया, पर अन्दर से किसी ने कहा " छूट तो गया, एक बार फिर से, घर ."
शायद
अक्सर उसकी हंसी से रोशनी हो जाती थी, अब अँधेरा सा रहता है.
मैंने जो नाम दिया था, बहुत पसंद था उसे.
उसके जाने के बाद एहसास हुआ, मैंने उसे कभी उस नाम से पुकारा नहीं.
क्या पता शायद लौट आती वो, क्या पता शायद नहीं जाती वो, क्या पता ?
आदत
तेज़ चलते हुए मैं अक्सर आगे निकल जाता था. मुझे सताने के लिए वह छिप जाती, और मैं पलट कर उसे ढूँढने लगता. फिर सामने आ कर वह मुझ पर खूब हंसती. मैं अब भी तेज़ चलता हूँ, पर पीछे पलट कर देखने की आदत छुट सी गयी है.
Monday, March 22, 2010
चलने वाले को रुकना कहाँ आता है.
वक़्त का क्या है आता है - जाता है.
जो दिल में होता था बता दिया करते थे,
अब वो सुन भी नहीं पाते, हमसे कहा भी नहीं जाता है.
इस मर्ज़ की शिफ़ा कहाँ कोई
किस्सा कोई होता नहीं की ज़ख्म उभर आता है.
सफ़र ख़त्म होने को है, बस कुछ कदम और
नम आँखों से अक्सर धुन्दला नज़र आता है.
परिंदे ने परवाज़ को मिलने की ठान ली
कहते हैं - तबीयत से चाहो, तो सब मिल जाता है.
Cheers
Pranjal
Mobile:09967709839
Blog:swayamsutra.blogspot.com
वक़्त का क्या है आता है - जाता है.
जो दिल में होता था बता दिया करते थे,
अब वो सुन भी नहीं पाते, हमसे कहा भी नहीं जाता है.
इस मर्ज़ की शिफ़ा कहाँ कोई
किस्सा कोई होता नहीं की ज़ख्म उभर आता है.
सफ़र ख़त्म होने को है, बस कुछ कदम और
नम आँखों से अक्सर धुन्दला नज़र आता है.
परिंदे ने परवाज़ को मिलने की ठान ली
कहते हैं - तबीयत से चाहो, तो सब मिल जाता है.
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