Wednesday, February 23, 2011

आफ़ताभ और शाम

हवा नमकीन और गीली है यहाँ और मेरे होठों पर नमक सूख चूका है
आफताभ का ऑफिस टाइम ख़त्म हुआ और रोशनी को एक झोले में डाल, पीठ पर लाद, चल दिया.
झोले के एक सुराख से समंदर की लहरों पर रिसती रोशनी की एक कतार बनता हुआ पता नहीं कहाँ जाता है रोज़ ? पीछा करते हुए, चल दिया में उस कतार पर.
रास्ते में, काफी अरसे बाद, आज शाम से मुलाक़ात हुई.
मुस्कुरा कर देखा उसने मेरी और, शायद पहचान लिया उसने मुझे.

- प्रांजल

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