उफ़क के पार भी उलफ़त न मिली
लौटा तो दयार भी सूना निकला
मैंने माना जिसे मेरा खुदा था
वो महज़ ज़र का पुतला निकला
जिस पर उम्र भर लिखता रहा
वो सफाह-ए-दिल भी कोरा निकला
मेरी आखरी ग़ज़ल का जुमला
मेरी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा निकला