Thursday, July 26, 2012

शुक्रिया, जगजीत साहिब


सूखे पत्तों की तरह चल दिया करते थे हवा के साथ 
बिन बताये आते थे और चले जाते थे
खुला दरवाज़ा जब हवा की दस्तक से बज उठता, तब टूटता था तुम्हारी आवाज़ का ख़ुमार   ...
सिग्रेट का हर कश एक नयी तस्वीर बन जाता था 
शायरों के अलफ़ाज़ तुम्हारी आवाज़ में ज्यादा मीठे लगते थे 
आंसू मेरे थे पर... सुनते तुम्हारी थे 
तुम गाते थे, तो बिन बताए चले आते थे 
कहने को तुम्हारी आवाज़ के साथ कईं रातें काटी हैं मैंने 
पर अब समझा वह कटी नहीं थीं.. 
मेरे ही अन्दर थी कहीं, आज फिर लौट आयीं हैं 
और इस बार न जाने के लिए आयीं हैं ....

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