Monday, September 29, 2014

डब्बे में अगले दो दिनों के लिए रोटियां बना कर 
मेरी पसंद का मिर्ची का अचार डाल कर
कनस्तर में राशन भर कर 
भगवान वाले आलीये में दिया जला कर 
मेरी सेहत और सलामती मांग कर
चुपके से मेरे बटुए में एक शगुन का नोट छुपा कर 
मिश्री खिला कर, डांट में लिपटा आशीर्वाद देकर 
कंघे में गलती से अपनी ढलती उम्र कि सफेदी छोड़ कर 
अक्स में मेरे लिए अपनी मुस्कान और आईने पर अपनी एक बिंदी छोड़ कर 
मेरे बंजर बीहड़ में सावन कि तरह आयी
आखों में सावन लिए
माँ आज घर चली गयी
जाते-जाते ट्रेने कि आवाज़ से लड़ती दरवाज़े पर खड़ी कुछ बड़बड़ा रही थी
रोज़ फल खाना
बालों में तेल लगाना
दफ्तर में ज़यादा मत रुकना
नशे में मत डूबना.......
ट्रैन का साईरन मानो मुझे चिढ़ा रहा था
थोड़ी देर के बाद आवाज़ सुनाई देना बंद हो गयी
फिर छोटी होते होते माँ दिखाई देना बंद हो गयी
कुछ देर में वहीँ खड़ा रहा, अकेला
जाती हुई ट्रैन को देख
खाली खंडर से ज़हन में एक ख़याल गूंजा
बचपन में बड़ा होने कि होड़ थी
बड्डपन में बड़ा बनने कि दौड़ है
पर कभी कभी लगता है
शायद सपने देखने कि बहुत बड़ी कीमत दे रहा हूँ
बड़े शहर के माचिस के डिब्बे में रेह रहा हूँ
अपना घर छोड़ के मकान में रेह रहा हूँ
क्या में ठीक कर रहा हूँ?

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