नम आँखों में नए ख़्वाब बोने हैं
गर्म साँसों में नए अशआर पिरोने हैं
लहर से लड़ने की होड़ लगानी है
बेहर से उफ़क़ तक दौड़ लगानी है
रेत हाथों से फिसलने से पहले...
परिंदों से परवाज़ का हुनर सीखना है
ज़ेहन में दर्ज़, हर क़िस्सा लिखना है
परियां रूठ गयी हैं, उन्हें मनाना है
बच्चों को फिर उनका बचपन लौटना है
रेत हाथों से फिसलने से पहले...
वक़्त से धीमा चलने की गुज़ारिश करनी है
फुर्सत से मुलाक़ातें बड़े, ऐसी सिफारिश करनी है
शाम के ठन्डे आफ़ताब की पेशानी चूमना है
बाद-इ-सबा में दरख्तों सा, खड़े-खड़े झूमना है
रेत हाथों से फिसलने से पहले...
पापा की पीठ से ज़िम्मेदारी का पिटठू उतारना है
शिकस्त के खौफ को मेहनत के चक्कू से मारना है
कुछ नूरानी तारे अम्मा की चप्पल में जड़ना है
जो सिर्फ मेरे लिए लिखी हो, वो ग़ज़ल पड़ना है
रेत हाथों से फिसलने से पहले...
रेत हाथों से फिसलने से पहले...
- प्रांजल
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