Wednesday, April 29, 2015

फुर्सत

ज़िन्दगी कि आप-धापी में भागते हुए 
कल दोपहर एक घने दरख़्त के साये में 
सुस्ताती, कान खुजाती,  फुर्सत दिखाई दी।   

मैं रुक गया और मैंने चुगली की गूगली मारी, 
"क्या रे, तू मिलती नहीं आजकल!!"
उसने मेरी तरफ देखा और एक ठहाका मारा , 
जो मुझे तमाचे की तरह लगा। 

फिर पास बैठने का इशारा किया और प्यार से बोली, 
"कमाने के चक्कर में ज़माने ने जीना छोड़ दिया है 
आज को छोड़ कर आने वाले कल के पीछे भागते हो 
सपने देखते हो, फिर उनके लिए जागते हो 
सांसें खर्च कर रहे हो और पैसा जमा कर रहे हो 
लोगों को छोड़ कर चीज़ों से दिल लगा रहे हो, तो इसमें मेरी क्या गलती है ?
मैं सिर्फ उन्हें मिलती हूँ जो मेरी क़द्र करते हैं" 

मैं कुछ देर उसके पास मोन बैठा रहा 
फिर मेरे कुछ खयालों और सवालों को आता देख वह उठ कर जाने लगी 
जाते हुए मैंने उससे समय पुछा तो पलटी और हंस कर बोली, 
"अच्छा है, पर मुसाफ़िर है "   
फिर चलती बनी, पता नहीं अब कब मिलेगी? 

- प्रांजल 

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