Wednesday, April 29, 2015

फुर्सत

ज़िन्दगी कि आप-धापी में भागते हुए 
कल दोपहर एक घने दरख़्त के साये में 
सुस्ताती, कान खुजाती,  फुर्सत दिखाई दी।   

मैं रुक गया और मैंने चुगली की गूगली मारी, 
"क्या रे, तू मिलती नहीं आजकल!!"
उसने मेरी तरफ देखा और एक ठहाका मारा , 
जो मुझे तमाचे की तरह लगा। 

फिर पास बैठने का इशारा किया और प्यार से बोली, 
"कमाने के चक्कर में ज़माने ने जीना छोड़ दिया है 
आज को छोड़ कर आने वाले कल के पीछे भागते हो 
सपने देखते हो, फिर उनके लिए जागते हो 
सांसें खर्च कर रहे हो और पैसा जमा कर रहे हो 
लोगों को छोड़ कर चीज़ों से दिल लगा रहे हो, तो इसमें मेरी क्या गलती है ?
मैं सिर्फ उन्हें मिलती हूँ जो मेरी क़द्र करते हैं" 

मैं कुछ देर उसके पास मोन बैठा रहा 
फिर मेरे कुछ खयालों और सवालों को आता देख वह उठ कर जाने लगी 
जाते हुए मैंने उससे समय पुछा तो पलटी और हंस कर बोली, 
"अच्छा है, पर मुसाफ़िर है "   
फिर चलती बनी, पता नहीं अब कब मिलेगी? 

- प्रांजल 

Tuesday, December 16, 2014

नम आँखों में नए ख़्वाब बोने हैं 
गर्म साँसों में नए अशआर पिरोने हैं 
लहर से लड़ने की होड़ लगानी है 
बेहर से उफ़क़ तक दौड़ लगानी है 

रेत हाथों से फिसलने से पहले...

परिंदों से परवाज़ का हुनर सीखना है 
ज़ेहन में दर्ज़, हर क़िस्सा लिखना है 
परियां रूठ गयी हैं, उन्हें मनाना है 
बच्चों को फिर उनका बचपन लौटना है 

रेत हाथों से फिसलने से पहले...

वक़्त से धीमा चलने की गुज़ारिश करनी है 
फुर्सत से मुलाक़ातें बड़े, ऐसी सिफारिश करनी है 
शाम के ठन्डे आफ़ताब की पेशानी चूमना है 
बाद-इ-सबा में दरख्तों सा, खड़े-खड़े झूमना है 

रेत हाथों से फिसलने से पहले...

पापा की पीठ से ज़िम्मेदारी का पिटठू उतारना है 
शिकस्त के खौफ को मेहनत के चक्कू से मारना है 
कुछ नूरानी तारे अम्मा की चप्पल में जड़ना है 
जो सिर्फ मेरे लिए लिखी हो, वो ग़ज़ल पड़ना है 

रेत हाथों से फिसलने से पहले...
रेत हाथों से फिसलने से पहले...

 
- प्रांजल 

Monday, September 29, 2014

डब्बे में अगले दो दिनों के लिए रोटियां बना कर 
मेरी पसंद का मिर्ची का अचार डाल कर
कनस्तर में राशन भर कर 
भगवान वाले आलीये में दिया जला कर 
मेरी सेहत और सलामती मांग कर
चुपके से मेरे बटुए में एक शगुन का नोट छुपा कर 
मिश्री खिला कर, डांट में लिपटा आशीर्वाद देकर 
कंघे में गलती से अपनी ढलती उम्र कि सफेदी छोड़ कर 
अक्स में मेरे लिए अपनी मुस्कान और आईने पर अपनी एक बिंदी छोड़ कर 
मेरे बंजर बीहड़ में सावन कि तरह आयी
आखों में सावन लिए
माँ आज घर चली गयी
जाते-जाते ट्रेने कि आवाज़ से लड़ती दरवाज़े पर खड़ी कुछ बड़बड़ा रही थी
रोज़ फल खाना
बालों में तेल लगाना
दफ्तर में ज़यादा मत रुकना
नशे में मत डूबना.......
ट्रैन का साईरन मानो मुझे चिढ़ा रहा था
थोड़ी देर के बाद आवाज़ सुनाई देना बंद हो गयी
फिर छोटी होते होते माँ दिखाई देना बंद हो गयी
कुछ देर में वहीँ खड़ा रहा, अकेला
जाती हुई ट्रैन को देख
खाली खंडर से ज़हन में एक ख़याल गूंजा
बचपन में बड़ा होने कि होड़ थी
बड्डपन में बड़ा बनने कि दौड़ है
पर कभी कभी लगता है
शायद सपने देखने कि बहुत बड़ी कीमत दे रहा हूँ
बड़े शहर के माचिस के डिब्बे में रेह रहा हूँ
अपना घर छोड़ के मकान में रेह रहा हूँ
क्या में ठीक कर रहा हूँ?

Monday, October 28, 2013

सियार जुगाड़ करता है
राई का पहाड़ करता है
खाता चुरा कर है, फिर PR करता है
झुंड मैं चोड़ा रहता है,
लड़ाई मैं भगोड़ा रहता है
मैं तो गधा हूँ, मेहनत करता हूँ

बन्दर हुकम बजता है
हुक्मरानों की सीटी पर गुलाटी लगता है
केले देख कर कुल्हे हिलाता है
दूजों की टोपी अपने सर लगाकर इतराता है
और पकड़ा जाए तो मुस्कुराकर मुकर जाता है
मैं तो गधा हूँ, मेहनत करता हूँ

शेर मांद में पड़ा सुस्ताता है
छटे -चोमासे घुर्राता है
चूहों को धमकता है
शेरनी का कमाया खाता है
इसलिए उसके आगे चूहा बन जाता है
मैं तो गधा हूँ, मेहनत करता हूँ 


Sunday, September 29, 2013


आज की रात सपना देख लेते हैं 
सोयेंगे फिर कभी 
गलतियों से हाथ जलाकर देखते हैं 
तूफ़ान को मुंह चिढ़ा कर देखते हैं 
खतरे से पंजा लड़ा कर देखते हैं 
सपनों को बेफ़िक्री से फुलाते हैं 
फूट जाएँ तो नए ले आते हैं 
तहज़ीब के कपड़े उतार कर बेशरम बन जाते हैं 
सच की छुरी को गर्दन पर अड़ाते हैं 
तकलुफ़्फ़ के तेल में तो उम्र भर तलना है 
अभी ज़िन्दगी को कच्चा खा कर देखते हैं 
आज की रात सपना देख लेते हैं
सोयेंगे फिर कभी 

Wednesday, September 18, 2013

अनबन


एक दिन रात और मेरे ख्वाब में नींद के लिए लड़ाई हो गयी 
ख्वाब ने नींद को अपनी और खींचा और कहा "में नींद के बिना नहीं रह सकता" 
उस पर रात झल्लाई, "तुम्हें तो खुली आखों से दिन में देखा था, दिल से, नींद पर सिर्फ मेरा हक़ है"
रात और ख्वाब की छीना झपटी में नींद हाथ से छूट कर टूट गयी 
अब मुझसे रात भी रूठ गयी है
ख्वाब तो आखों में है, पर थोड़ा थक सा गया है, जम्हाई लेता रहता है 
रोज़ मैं और मेरा ख्वाब नींद का इंतज़ार करते हैं 
वक़्त हमें मूंह चिढ़ता है 
और वक़्त के साथ इतराती हुई रात रोज़ आखों के सामने से निकल जाती है 

Saturday, May 25, 2013



काफी दिनों बाद, आज कलम ने आवाज़ दी 
और कहा, "भूल गए हो तुम मकसद अपना"
काफी दिनों बाद आज कागज़ ने झल्ला कर कहा, "आसान नहीं है लिखना कहा था मैंने तुमसे" 
खाली कागज़ मानो मुझे बिन लकीर का हाथ बन कर थप्पड़ मार रहा था
फिर खिड़की से आई सबा मैं एक लम्बी सांस लेने के बाद कलम प्यार से बोली, 
"अरे जज्बातों को अगर अन्दर रखेगा तो एक दिन दम तोड़ देंगे, 
लहू भी रखे-रखे स्याही की तरह सूख जाएगा
तकदीर की ज़ंजीर मैं तुम कसते चले जाओगे 
दोस्त, मौत की दहलीज़ पर बैठ कर उसका 
इंतज़ार करने से बड़ी कोई सजा नहीं 
अन्दर से राख होने से तो ख़ाक हो जाना अच्छा 
कलम की बातें सुनकर मेरी आखें भर आई 
हाथ की उंगलियाँ जो सुन्न पड़ चुकी थीं  
उनमें हरकत हुई 
काफी दिनों बाद जो अश्क आखों में जम 
गया था, बह गय ... 

- प्रांजल 

Wednesday, March 27, 2013


नंगी ताक़त ने आज़ादी के भ्रम का पर्दा हटा दिया 
आज सियासत ने इंसानियत को फिर से हरा दिया

रियासत के शहंशा का मकबूल तो हर शख्स यूं ही था,
पर जिसने मातम न मनाया उसे मकतूल बना दिया  

उसमें ख़ुदा रहता था, सब दिल से सजदा करते थे
झूठ के नक़ली सजदों ने उसे पत्थर का बुत बना दिया 

जिस बुज़ुर्ग शेर ने ज़िन्दगी भर जंगल की हिफाज़त की 
उसका जनाज़ा उठा नहीं की सियारों ने जंगल जला दिया 

देवी


बाज़ार में बेचीं जाती है 
घर में जलाई जाती है 
कोक में मारी जाती है 
पर्दे में छुपाई जाती है
जूती के नीचे दबाई जाती है 
पीछे चले तो कमज़ोर कहलाती है 
आगे चले तो कठोर कहलाती है
बोलने लगे तो चुप कर दी जाती है 
फिर भी बोले, तो मूजोर कहलाती है 
सड़क पर घूरी जाती है 
सरेआम लूट ली जाती है
लुट जाने की दोषी ठहराई जाती है  
उड़ने लगे तो क़ैद की जाती है 
आगे बड़ने पर टोक दी जाती है 
मैली होने पर छोड़ दी जाती है
एक बार मैली हो जाए, तो बार-बार मैली की जाती है
और हाँ ...मंदिर में पूजी जाती है, देवी

Saturday, October 6, 2012

जुर्रत



जुर्रत 

आज नशे में एक ख्वाब की जुर्रत कर ली 
तेरे साथ अपने साथ की जुर्रत कर ली 

तेरे मुन्तज़िर तो हम हमेशा से हैं 
तेरी और नज़र उठाने की जुर्रत कर ली 

महफिलों में अक्सर देखा है तुझे 
हमने भी महफिलों में जाने की आदत कर ली 

दरीचे में दो पल के तेरे मंज़र के लिए 
ज़िन्दगी तेरे सामने वाले घर में बसर कर ली 

उबलो


उबलो 
हाथ फैलाना बंद करो, हाथ उठाओ 
तमाशा देख कर ताली मत बजाओ
सच की रोशनी से आखों को चून्धियाने दो 
अँधेरे में अंधे मत मरो

उबलो  
चीखों को संगीत की तरह मत सुनो 
सपनों को झूठ के धागों से मत बुनो 
हाथ की लकीरों के इशारों पर  मत चलो 
उड़ना चाहते हो तो गिरने से मत डरो

उबलो 
हंस कर अपनी हंसी मत उड़वाओ
खूटे की रस्सी की लम्बाई मत बड़ाओ
आज़ादी के मुखोटे को उतारो 
अपनी गुलामी का जश्न मत बनाओ 

Thursday, July 26, 2012

तनहा

उफ़क के पार भी उलफ़त न मिली 
लौटा तो दयार भी सूना निकला 

मैंने माना जिसे मेरा खुदा था 
वो महज़ ज़र का पुतला निकला  

जिस पर उम्र भर लिखता रहा  
वो सफाह-ए-दिल भी कोरा निकला 

मेरी आखरी ग़ज़ल का जुमला 
मेरी ज़िन्दगी का फ़लसफ़ा निकला 

तफ़री

चल आजा ज़रा बीते सालों में कर के आते हैं तफरी
चल लेकर आते हैं कश पहली सिग्रेट का, जो आधी-आधी पी थी हमने, 
आ झाँक कर आते हैं कॉलेज की पहली क्लास में, 
ज़रा फिर क्लास से भाग कर चलते हैं पीछे वाली टपरी पर,
शायद कोई पुरानी हंसी फिर गिर पड़े सर पर, 
शायद गिरा पड़ा हो कोई ठहाका ज़मीन पर
शायद पेड़ के पीछे से निकल कर डरा दे हम ही हमें
चल ज़रा टूटे दिल को हौसला दे आयें, 
जो गुमसुम हो उसे बहला आयें, 
चल कुछ लम्हों के लिए आज को कह दें अलविदा
 चल 
आजा ज़रा बीते सालों में कर के आते हैं तफरी ........

शुक्रिया, जगजीत साहिब


सूखे पत्तों की तरह चल दिया करते थे हवा के साथ 
बिन बताये आते थे और चले जाते थे
खुला दरवाज़ा जब हवा की दस्तक से बज उठता, तब टूटता था तुम्हारी आवाज़ का ख़ुमार   ...
सिग्रेट का हर कश एक नयी तस्वीर बन जाता था 
शायरों के अलफ़ाज़ तुम्हारी आवाज़ में ज्यादा मीठे लगते थे 
आंसू मेरे थे पर... सुनते तुम्हारी थे 
तुम गाते थे, तो बिन बताए चले आते थे 
कहने को तुम्हारी आवाज़ के साथ कईं रातें काटी हैं मैंने 
पर अब समझा वह कटी नहीं थीं.. 
मेरे ही अन्दर थी कहीं, आज फिर लौट आयीं हैं 
और इस बार न जाने के लिए आयीं हैं ....

Monday, March 5, 2012

दुआ

मुसाविर हो तुम
तुम्हारी तसवीरें महकती हैं
रंग कितने हैं तुम्हारे, महक भी कईं हैं
पुराने अलफ़ाज़ हैं, पर बात नयी है..
अल्लाह करे
कलम में दरीया-ए- स्याही, दिल में क़रार रहे
क़यामत तक इस गुलज़ार में बहार रहे

Friday, March 2, 2012

पापा

पापा
पहली बार साइकिल सिखाते हुए बिन बताये, धीरे से छोड़ दी थी साइकिल
पर भाग रहे थे मेरे पीछे
और मुझे लगा आपने पकड़ रखा है मेरी साइकिल को, में गिरूंगा नहीं
और में बिना डरे आगे बढता गया
अभी भी आप हो मेरे पीछे
मुझे पता है, आप हमेशा रहोगे मेरे साथ
गिरने नहीं दोगे मुझे.....

Monday, April 18, 2011

बाकी है अभी.....

बाकी है अभी.....

पैरों के नाखून में थोड़ी सी रेत

नींद से बंजर आँखों में थोड़ी सी शराब

कुछ बनते हुए ख्वाब, कल की तस्वीर

बाकी है अभी .....

जीभ पर पानी का नमक

आँखों में कुछ लम्हों का मंज़र

जो खुरेद कर छोड़ आये हैं

किनारे के किसी पत्थर पर

बाकी है अभी.......

चाँद से छुपकर,

गीली हवा के साज़ पर,

सोयी हुई तर्ज़ में लहरों ने गुनगुनाई थी

कान में धुंदली सी एक ग़ज़ल

बाकी है अभी........

जेब में गीली रेत,

एक गीले ख़त पर फैली हुई स्याही

में कुछ अशहार

कच्चे धागे में पिरोई सीपियों की एक माला

हाथों से लम्हों सी फिसलती सूखी रेत का एहसास

बाकी है अभी.........


Wednesday, February 23, 2011

आफ़ताभ और शाम

हवा नमकीन और गीली है यहाँ और मेरे होठों पर नमक सूख चूका है
आफताभ का ऑफिस टाइम ख़त्म हुआ और रोशनी को एक झोले में डाल, पीठ पर लाद, चल दिया.
झोले के एक सुराख से समंदर की लहरों पर रिसती रोशनी की एक कतार बनता हुआ पता नहीं कहाँ जाता है रोज़ ? पीछा करते हुए, चल दिया में उस कतार पर.
रास्ते में, काफी अरसे बाद, आज शाम से मुलाक़ात हुई.
मुस्कुरा कर देखा उसने मेरी और, शायद पहचान लिया उसने मुझे.

- प्रांजल

Wednesday, October 20, 2010

स्तुति

तुम कलमधार करते प्रहार
शब्दों से अपने अपरम्पार

इश्वर करे तुम्हारी जय हो
चलते रहो तुम्हे न कोई भय हो
जय हो तुम्हारी जय हो

तुम में दीवाकर सी प्रबल ज्वाला
तुम तुच्छ मानव की पाठशाला

निश्छल जल प्रपात की तीव्र धार
तुम अग्नि दूत , तुम प्रबल ज्वार

लिख दो भविष्य कर दो निहाल
जग करे नृत्य और तुम दो ताल


- प्रांजल

Friday, September 17, 2010

ग़ज़ल
कमरे में धुंधली लाल रोशनी के बीच, कुछ टूटे कांच के टुकड़ों थे | मेरे अक्स में दरारें तो कब से थीं, पर आज जो हुआ सहन नहीं कर पाया वो | क्या हुआ था, इससे क्या फर्क पड़ता है किसीको? लाल रोशनी में खो जाने की कोशिश कर रहा था मैं | तब कांच के टुकड़ों पर पानी की बूँद सी आवाज़ में, एक हमनफ़स ने कहा | खुद की ख़ुशी,खुद ही के हाथ में होती है, अपने दर्द को ख़ुशी का नाम दे दो तो वो ख़ुशी बन जाएगा | मैंने अपने अक्स को समेटना शुरू किया और हर बार की तरह, ग़ज़ल ने मेरा साथ दिया |

Wednesday, August 4, 2010

आइना

आइना झूठ नहीं बोलता था कभी, लेकिन अब आइनों मैं वह बात कहाँ ?
हर शख्स का आइना अलग, अक्स अलग, पैकर अलग, और सच अलग.
सदाक़त तो आइनों में दफन है कहीं,झूठला देते हैं लोग सब को, खुद को भी.
पर ये झूठ कहाँ ? ये तो सच है, क्योंकि हर एक का सच अलग है.

Friday, July 30, 2010

घर

सुबह तड़के, स्टेशन पर, रैंगति ट्रेन के सायरन ने, फिर मेरा सपना तोड़ दिया. ट्रेन की खिड़की के साथ भागती मेरी बहन ने पुछा " सब रख लिया न ? कुछ छूट तो नहीं गया ? मैंने कुछ जवाब नहीं दिया, पर अन्दर से किसी ने कहा " छूट तो गया, एक बार फिर से, घर ."


शायद


अक्सर उसकी हंसी से रोशनी हो जाती थी, अब अँधेरा सा रहता है.
मैंने जो नाम दिया था, बहुत पसंद था उसे.
उसके जाने के बाद एहसास हुआ, मैंने उसे कभी उस नाम से पुकारा नहीं.
क्या पता शायद लौट आती वो, क्या पता शायद नहीं जाती वो, क्या पता ?


आदत

तेज़ चलते हुए मैं अक्सर आगे निकल जाता था. मुझे सताने के लिए वह छिप जाती, और मैं पलट कर उसे ढूँढने लगता. फिर सामने आ कर वह मुझ पर खूब हंसती. मैं अब भी तेज़ चलता हूँ, पर पीछे पलट कर देखने की आदत छुट सी गयी है.

Monday, March 22, 2010

चलने वाले को रुकना कहाँ आता है.
वक़्त का क्या है आता है - जाता है.

जो दिल में होता था बता दिया करते थे,
अब वो सुन भी नहीं पाते, हमसे कहा भी नहीं जाता है.


इस मर्ज़ की शिफ़ा कहाँ कोई
किस्सा कोई होता नहीं की ज़ख्म उभर आता है.

सफ़र ख़त्म होने को है, बस कुछ कदम और
नम आँखों से अक्सर धुन्दला नज़र आता है.

परिंदे ने परवाज़ को मिलने की ठान ली
कहते हैं - तबीयत से चाहो, तो सब मिल जाता है.








Cheers
Pranjal
Mobile:09967709839
Blog:swayamsutra.blogspot.com

Monday, September 14, 2009

कुछ नया लिखो

कुछ नया लिखो
अड्भुत लिखो , अनोखा लिखो
कुछ......

वही दिवा-निशा, वही चार दिशा
आज दिवा मैं शब्दों के बादल का ग्हुप अँधेरा लिखो
कुछ......

सोचो, देखो, रोको, पूछो
फुसफुसाओ मत, खुलकर चीखो
सब प्रश्न वही, कोई उत्तर नहीं
सब क्षीण वारों की व्यथा वही
प्रश्नों का प्रबल आक्रमण लिखो
एक नयी गंगा का उद्गम लिखो
कुछ....

कोनो-कुंचो से अब निकलो
मत अपनी आँखों को मीचो
हिंदी-उर्दू, सब साथ लिखो
आगाज़ लिखो ,शंख-नाद लिखो
स्पर्श लिखो, आवाज़ लिखो
अब कलमों को तीखा करो
स्याही कम हो तो रक्त भरो
पर अधुरा नहीं अब पूरा लिखो
कुछ ...

आज नहीं तो कल होगा
इस सोच को अब दफन करो
मुश्किल का हल मुश्किल में है
मिले नहीं तो यतन करो
और हल है ही नहीं, तो पैदा करो
आयास को थोडा बड़ा करो
कुछ नया लिखो
कुछ नया करो....

-प्रांजल

Saturday, August 29, 2009

खलिश

आज कल शहर में इंसान कहाँ रहे
पैकर नहीं होते ,फ़क़त नाम हैं

मोहब्बत, इज्ज़त , शोहरत या इबादत
कुछ यूँही नहीं मिलता , सब के ऊँचे दाम हैं

चर्चों मैं हैं , पर्चों मैं हैं , वो नुजूम ऐ अर्श-ऐ-ज़ीम
सब ही ख़ास हैं यहाँ , अब न कोई आम है

वो दिन गए जब आफ़ताब से रोशन थी ये दुनिया
अब हुनर नहीं अहल-ऐ-दवल का एहतराम है

तबियत अगर नहीं हो तो ज़हमत नहीं करें
शायर हैं हम, शायारी ही अपना अंजाम है

- प्रांजल

नूजूम = सीतारे , अर्श-ऐ-ज़ीम = सातवाँ आसमान , आफताब = सूरज ,
अहल-इ-दवल = अमीर लोग